Monday, January 25, 2010

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी का क्या भरोसा, साथ कब ये छोड़ दे,
मौत के आग़ोश में, कब, क्यूँ, कहाँ दम तोड़ दे।

है बहुत कमज़ोर इन्सान, उसके बस में ये नहीं,
चंद सांसें भी किसी की ज़िन्दगी में जोड़ दे।

कोशिशें तो कीं बहुत, पर जान न पाया कोई
कौन सा पल, ज़िन्दगी का रुख, किधर को मोड़ दे।

हाथ की रेखाओं को, कोई बदल सकता नहीं,
किस में है दम, जो खुदा के फैसले को होड़ दे?

है यही बस में, कि बांटो मुस्कुराहट हर जगह,
जाने से पहले, तू अपने कुछ निशाँ तो छोड़ दे...

3 comments:

  1. Good going
    Finally sikha diye na poem likhna 2mko??
    U r welcome:)

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  2. Dhansu hai yaar...
    very very very nice[:)]

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  3. @Syu: Tum paida bhi nahi hue they tab se poem likh rahe hain...samjhe? Bade aaye sikhaane waale!

    @James: Thank you very much! :)

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